इस विद्यालय का इतिहास बहुत ही रोचक एवं प्रेरणादायक रहा है । निम्न प्राथमिक विद्यालय से आरम्भ यह विद्यालय १९६३ मे शिक्षा विभाग द्वारा प्रस्वीकृत हुआ । प्रखण्ड - नोवामुण्डी, जिला प॰ सिंहभुम (झारखण्ड) स्थित बड़ाजामदा अनुसुचित जाति एवं जन जाति बाहुल्य क्षेत्र होने पर भी हिन्दी भाषा भाषी जागरुक जनता अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं को विकसित करने के लिये सदैव प्रयत्नशील रही है । श्री रघुनाथ उपाध्याय जी इस विद्यालय के जीवन प्रयन्त सचिव के पद पर सम्मानपू्र्वक रहे । उन्ही के प्रेरणा से लगभग २२००० रु॰ की लागत से पाँच बड़ी एवं दो छोटी कोठरियों का सुन्दर एवं मजबुत भवन का निर्माण किया । विद्यालय का प्रस्वीकृत के बाद श्री जितेन्द्र नाथ जी प्रथम प्रधानाध्यापक के रुप में नियुक्त हुए किन्तु एक वर्ष के बाद ही श्री राम लोचन झा जी की नियुक्ति प्रधानाध्यापक के पद पर हुई और श्री जितेन्द्र नाथ जी प्रशि्क्षण हेतु विरमित हुए । उस समय इस क्षेत्र में यही एकमात्र प्राथमिक विद्यालय था, अतएव विद्यालय में शिक्षकों की संख्या ६ थी एवं बच्चे मात्र २२५ थे । कालान्तर के पश्चात स्व॰ श्री काशीनाथ जी एवं श्री गोपाल लाल जी के सक्रिय सहयोग से विद्यालय उतरोतर विकास करता गया । छात्र - छात्राऔ की संख्या बढ़ती गई । विद्यालय से षष्ठम एवं सप्तम वर्ग की पढ़ाई प्रबन्ध समिति के माध्यम से जारी रखा, क्योंकि १९५९ में इस विद्यालय को पंचम वर्ग तक की स्वीकृति मिली थी । अगस्त १९६५ में अतिरिक्त भवन का निर्माण जन सहयोग एवं स्थानीय समिती के माध्यम से पूर्ण हुआ जिसका उद्घाट्न उपायुक्त महोदय पं॰ सिहभुम द्वारा किया गया । १९६५ से १९७७ के मध्य इस विद्यालय को दो प्रधानाध्यापक मिले १. श्री सचिदानंद झा जी २. श्री केदारनाथ सिंह जी । इनके अथाह प्रयास से बच्चों की संख्या ४५० हो चुकी थी । पुनः १६.१०.१९७७ से ईस विद्यालय को श्री जितेन्द्र नाथ जी प्रधानाध्यापक के रुप मे विराजमान हुए । उस समय उन के प्रयास से विद्यालय तेजी से विकसित होने लगा । १९७९ से लगातार तीन सालों तक नवोदय परीक्षा में बच्चों के उतीर्ण होने से इस विद्यालय को "आदर्श विद्यालय" का तमगा प्राप्त हुआ । १९८२ से इस विद्यालय को राजकियकृ्त आदर्श मध्य विद्यालय बड़ाजामदा के नाम से सुशोभित हुआ । वर्ग प्रथम से सप्तम तक की पढ़ाई स्वीकृ्त हो चुकी थी । उनके समय विद्यालय का स्वर्ण युग प्रारंभ हो गया था । कालांतर के पश्चात एकीकृ्त बिहार के समय बिहार शिक्षा परियोजना लागु होने के पश्चात शिक्षा जगत मे अदभुत परिवर्तन हुआ । उस समय श्री धनेश्वर महतो जी प्रधानाध्यापक के पद पर थे किन्तु ०७.०५.२००७ को उनकी मृ्त्यु के पश्चात विद्यालय का प्रभार राजकुमार जी को सौंपा गया । श्री राजकुमार जी को विरासत के रुप मे एक चुनौति भरा कार्य मिला । १५ नवम्बर २००० के पश्चात् (बिहार विभाजन के फलस्वरुप) 'झारखण्ड शिक्षा परियोजना' लागु था । भवन निर्माण के अलावे कोई विकास कार्य अधुरे थे, उसे पुर्ण करना था । शिक्षकों की कमी विद्यालय मे अध्यापन कार्य को सुचारु रुप से करने मे बाधक थी । उस समय विद्यालय मे छात्रों की संख्या लगभग ५५० थी । लेकिन प्रभारी के अथक प्रयास एवं सहायक शिक्षकों / शिक्षिका के निरंतर प्रयास से विद्यालय को शिखर पर पहुँचाया । आज २३ कमरे के इस विद्यालय मे ११५० बच्चें नामांकित है, जहाँ प्रतिदिन ९० % - ९५ % उपस्थित रहते हैं। विद्यालय मे विकास कार्य को इस तरह पुर्ण किया जिस को सरकारी प्राक्कल्लित राशि द्वारा पुर्ण करना कदापि संभव नही थी । सरकारी विद्यालय मे जहाँ सी॰ सी॰ टीवी एवं प्रोजेक्टर की मात्र कोरी कल्पना है, वहीं इस विद्यालय ने इस कल्पना को पीछे छोड़ कर हकीकत मे कर दिखाया । प्रभारी प्रधानाध्यापक के लगन एवं सहयोगी शिक्षकों के उत्साह से इस विद्यालय ने उस स्वर्णिम युग को छुआ है जिससे पीछे मुड़कर देखना नही बल्कि लगातार आगे बढ़ते रहने का हौसला लेकर आई॰ एस॰ ओ॰ प्रमाण पत्र पाने का लक्ष्य है । जगत गुरु चाणक्य ने ठीक ही कहा है - "शिक्षक कभी साधारण नही होता, प्रलय और निर्माण उसकी गोद मे पलते हैं ।" इतिहास यहीं समाप्त नहीं होता, दिन प्रतिदिन इतिहास के पन्ने जुड़ते जायेंगे । भविष्य मे इतिहास कुछ और उज्जवलपुर्ण जुड़ते जायेंगे जो सबके लिये अनुकरणीय होगा ।